Natasha

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तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

"कुछ दिन के लिए वहाँ नहीं जा पाएँगे, लीज़ा । आजकल शहर में थोड़ा तनाव पाया जाता है। जब स्थिति बेहतर हो गई तो चलेंगे। इस वीक-एंड तो...” रिचर्ड को सूझ नहीं पाया कि क्या कहे। आनेवाला वीक-एंड कैसा होगा, वह कहीं लीज़ा को ले जा पाएगा या नहीं, वह स्वयं स्पष्टतया नहीं जानता था।

"कहीं निकल जाएँगे," वह बुदबुदाया और नीचे पहुँचकर घोड़े की बाग मोड़ दी।

नाश्ता करने से पहले रिचर्ड और लीज़ा बँगले के अनगिनत कमरे लाँघते हुए बड़े कमरे में आकर रुक गए। अप्रैल का महीना शुरू होते ही दिन चढ़ने पर ही खिड़कियों और दरवाज़ों पर पर्दे डाल दिए जाते थे जिससे घर के अन्दर स्निग्ध-सा अँधेरा बना रहता और दिन को भी बिजली की रोशनी की ज़रूरत रहती थी। चारों ओर दीवारों के साथ लगी अलमारियों में किताबें ठसाठस भरी थीं। उनके बीच, जगह-जगह दीवार के साथ लकड़ी के ऊँचे आधार रखे थे जिन पर बुद्ध तथा बोधिसत्त्वों के अनेक ऊर्ध्वकाय बुत रखे थे। प्रत्येक बुत के ऊपर बिजली की रोशनी का अलग से प्रबन्ध किया गया था। बटन दबाने पर रोशनी ऐसे कोण से बुत के चेहरे पर पड़ती कि उसका रूप खिल उठता। इनके अतिरिक्त दीवारों पर भारतीय चित्रकला के अनेक चित्र, अँगीठी पर गुड़िया और ताम्रपत्र पर लिखा एक ग्रन्थ रखे थे। अँगीठी के सामने शिलालेख का एक बड़ा-सा टुकड़ा लकड़ी के कुन्दे के सहारे खड़ा था। निकट ही तीन मूढ़े और काली लकड़ी की एक लम्बी, नीची तिपाई रखी थी। यहाँ रिचर्ड पाइप सुलगाकर पढ़ा करता था। यहीं पर खानसामा स्टोव पर पानी की केतली और चाय के बर्तन भी रख जाता था, रिचर्ड को स्वयं चाय बनाकर पीने का शौक था तिपाई पर अधखुली किताबें, पत्रिकाएँ रखी थीं और साथ में पाइप-स्टैंड रखा था जिसमें तरह-तरह के सात-आठ पाइप रखे थे। तिपाई के ऐन ऊपर बड़े गोल शेड का लैम्प लटक रहा था। पढ़ते समय बत्ती जलाने पर प्रकाश का वृत्त इन्हीं तीन 'मूढ़ों' और तिपाई पर ही बना रहता, बाकी कमरे में अँधेरा रहता था।

लीज़ा की कमर में हाथ डाले रिचर्ड बुद्ध की मूर्तियाँ-जिन्हें उसने लीज़ा के चले जाने के बाद इकट्ठा किया था-एक-एक करके दिखा रहा था।

"बँगले के बाहर होता हूँ तो हिन्दुस्तान के किसी शहर में होता हूँ। बँगले में लौटता हूँ तो पूरे हिन्दुस्तान में लौट आता हूँ!" रिचर्ड कह रहा था।

मोटे काले फ्रेम का चश्मा, मुँह में पाइप, कोहनियों पर लगे झब्बोंवाला पुराना कोट और नीचे कार्डराय की ढीली-सी पतलून पहने एक कमरे से दूसरे कमरे में जाता हुआ रिचर्ड किसी संग्रहालय का क्यूरेटर लगता था।

वे बुद्ध की एक मूर्ति के सामने आकर रुक गए।

“बुद्ध की मूर्तियों की सबसे बड़ी खूबी वह धीमी-सी मुस्कान है जो उसके होंठों के आसपास खेलती रहती है। बुद्ध के चेहरे को ऐसी रोशनी में रखना चाहिए जिसमें यह मुस्कान उघड़ आए। ठहरो, मैं तुम्हें दिखलाता हूँ।" रिचर्ड ने कहा और सामने रखी बुद्ध की मूर्ति को थोड़ा दाईं ओर को घुमा दिया और बटन दबा दिया जिससे बुद्ध के ऐन ऊपर टँगी रोशनी जग गई।

"देखा लीज़ा, देखा?" रिचर्ड ने चहककर कहा। लीज़ा को भी लगा कि बुद्ध के चेहरे पर मुस्कान सहसा खिल उठी है-शान्त, स्निग्ध, तनिक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान।"

"मुस्कान होंठों के कोनों में छिपी रहती है। पैंतालीस डिग्री के कोण पर से हल्की-सी रोशनी डालो तो जैसे मुस्कान फूटकर बाहर आ जाती है। अब इसी का कोण मोड़ दूं तो मुस्कान बहुत-कुछ ओझल हो जाएगी..."

लीज़ा ने मुड़कर रिचर्ड के चेहरे की ओर देखा। ये आदमी लोग कितने अजीब होते हैं, कितना रस ले-लेकर पत्थरों और खंडहरों के बारे में बातें करते रहते हैं। कोई स्त्री इन बातों के बारे में जानते हुए भी इतना चहकेगी नहीं, इतनी डींग नहीं मारेगी। उसने रिचर्ड का बाजू दबा दिया और उसके कन्धे पर अपना गाल रख दिया।

“बुद्ध के बुतों की यही सबसे बड़ी खूबी है। एक हल्की-सी मुस्कान बुद्ध के होंठों पर खेलती रहती है।" रिचर्ड ने कहा और झुककर लीज़ा के बालों को चूम लिया।

हर कमरे में तरह-तरह की बत्तियाँ थीं। जहाँ कहीं बैठने का प्रबन्ध था, वहाँ से घंटी की तार किचन तक अथवा बाहर बरामदे तक चली गई थी।


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